इससे पहले भी एक फिल्म आई थी, पठान। उसको लेकर भी कुछ इसी तरह हो हल्ला मचा था। उस फिल्म में भगवा रंग की बिकनी और उस पर फिल्माया गया बेशरम रंग गाना खूब विवादो में रहा। इस सीन को फिल्म से हटाने की मांग भी की गई। फिल्म को बायकॉट करने की बात भी बड़े जोर शोर से उठी लेकिन हुआ उसके उलट। दावा किया जाता है कि ये फ़िल्म सुपरहिट रही।
अब सवाल उठता है कि फिल्मों के माध्यम से सनातन मान्यताओं, कथाओं और परंपराओं का मज़ाक बनाने उड़ाने का यह सिलसिला क्या यूं ही चलता रहेगा? बॉलीवुड जब सनातन धर्म आस्था पर चोट करेगा, जैसा कि इस इंडस्ट्री का इतिहास रहा है, तो क्या सिर्फ़ ऐसे ही हो हल्ला मचाया जाएगा? क्या सिर्फ़ बवाल काटने से, हंगामा खड़ा करने से स्थिति में कुछ बदलाव आएगा? लोग सेंसर बोर्ड से उम्मीद करते हैं कि ऐसे मामलों में यह बोर्ड अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभाएगा। हर धर्म और मजहब की आस्थाओं को बराबर ट्रीटमेंट देगा, लेकिन ऐसा होता दिखता नहीं है।
तो ऐसे में क्या किया जाना चाहिए? क्यों न एक सनातन बोर्ड का गठन किया जाए जिसमें धर्म से जुड़े विशेषज्ञ हों जो सेंसर बोर्ड के साथ मिलकर काम करें। बोर्ड के साथ बैठकर वे भी फिल्म को जांचे परखे। इस तरह की फिल्मों को जब तक रिलीज़ न किया जाए जब तक उनकी तरफ से नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट न मिले।
इसके बाद भी फ़िल्म को लेकर दर्शक अगर कोई आपत्ति दर्ज कराते हैं तो कम से कम धर्म गुरुओं या धर्म विशेषज्ञों से सवाल जवाब किए जा सकते हैं कि आख़िर बोर्ड में रहते हुए कैसे अदिपुरुष जैसी फ़िल्म रिलीज़ हो गई?
एक रास्ता ये भी है कि बोर्ड में फिल्मों को लेकर निर्णायक फैसला लेने वाले अधिकारियो के खिलाफ़ इतनी सख्त कार्रवाई की जाए कि वो नज़ीर बन जाए। बोर्ड में बैठे अधिकारियों को अगर इतना भी ज्ञान नहीं है कि इस फिल्म से किसी की धार्मिक भावनाएं आहत हो सकती हैं तो उन्हें बोर्ड में अपनी सेवाएं देने का कोई हक़ नहीं। अगर वे जानबूझकर ऐसी फिल्मों को मंच दे रहे हैं तो ये और भी खतरनाक है। उनके खिलाफ़ तुरंत कठोर से कठोर कार्यवाई होनी चाहिए।
किसी के धैर्य की परीक्षा लेने की इजाज़त किसी को नहीं होनी चाहिए। आख़िर, चिंगारी का खेल बुरा होता है!
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