आदिपुरुष पर बवाल के बाद क्या बदला?


अभी हाल ही में फिल्म आदिपुरूष रिलीज हुई। खूब बवाल हुआ। सोशल मीडिया पर जमकर हंगामा हुआ। टीवी चैनलों पर दिन रात डिबेट हुई। फिल्ममेकर्स को भी खरी खोटी सुनाई गई। फजीहत होती देखकर फिल्म के कुछ डायलॉग बदलने पड़े। लोगों ने फिल्म को बैन करने की मांग तक कर डाली। इंडिया में तो खैर फिल्म बैन नहीं हुई लेकिन पडौसी देश नेपाल में इसे बैन कर दिया गया। फिल्म में प्रयोग किए गए डायलॉग 'भारत की बेटी' से नेपाल इतना आहत हुआ कि सिर्फ़ यही नहीं, हर हिंदी फ़िल्म को बैन कर दिया गया। फिल्म के लेखक मनोज मुंतशिर शुक्ला के बयानों ने आग में घी डालने का काम किया। अपने लिखे डायलॉग को जस्टिफाई करते हुए उन्होंने बोला कि नेपाल कभी भारत का ही हिस्सा हुआ करता था। भारत से अलग हुए इसे ज्यादा दिन नहीं हुए। कुल मिलाकर, मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की। जितना मेकर्स इस फ़िल्म को लेकर सफाई देते, विवाद उतना ही बढ़ जाता। जनता जनार्दन को फिल्म बनाने वालों की दलीलें खोखली नज़र आईं। मेकर्स का हर तर्क कुतर्क में तब्दील हो गया। कहावत हैं कि झूठ के पैर लंबे नहीं होते। ज़्यादा दिन तक टिक नहीं पाता। इसी तरह झूठ की नींव पर बनाई गई यह फ़िल्म लंबी नहीं चल पाई और एक हफ्ते में ही धराशाई हो गई। 

इससे पहले भी एक फिल्म आई थी, पठान। उसको लेकर भी कुछ इसी तरह हो हल्ला मचा था। उस फिल्म में भगवा रंग की बिकनी और उस पर फिल्माया गया बेशरम रंग गाना खूब विवादो में रहा। इस सीन को फिल्म से हटाने की मांग भी की गई। फिल्म को बायकॉट करने की बात भी बड़े जोर शोर से उठी लेकिन हुआ उसके उलट। दावा किया जाता है कि ये फ़िल्म सुपरहिट रही। 

अब सवाल उठता है कि फिल्मों के माध्यम से सनातन मान्यताओं, कथाओं और परंपराओं का मज़ाक बनाने उड़ाने का यह सिलसिला क्या यूं ही चलता रहेगा? बॉलीवुड जब सनातन धर्म आस्था पर चोट करेगा, जैसा कि इस इंडस्ट्री का इतिहास रहा है, तो क्या सिर्फ़ ऐसे ही हो हल्ला मचाया जाएगा? क्या सिर्फ़ बवाल काटने से, हंगामा खड़ा करने से स्थिति में कुछ बदलाव आएगा? लोग सेंसर बोर्ड से उम्मीद करते हैं कि ऐसे मामलों में यह बोर्ड अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभाएगा। हर धर्म और मजहब की आस्थाओं को बराबर ट्रीटमेंट देगा, लेकिन ऐसा होता दिखता नहीं है। 

तो ऐसे में क्या किया जाना चाहिए? क्यों न एक सनातन बोर्ड का गठन किया जाए जिसमें धर्म से जुड़े विशेषज्ञ हों जो सेंसर बोर्ड के साथ मिलकर काम करें। बोर्ड के साथ बैठकर वे भी फिल्म को जांचे परखे। इस तरह की फिल्मों को जब तक रिलीज़ न किया जाए जब तक उनकी तरफ से नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट न मिले। 

इसके बाद भी फ़िल्म को लेकर दर्शक अगर कोई आपत्ति दर्ज कराते हैं तो कम से कम धर्म गुरुओं या धर्म विशेषज्ञों से सवाल जवाब किए जा सकते हैं कि आख़िर बोर्ड में रहते हुए कैसे अदिपुरुष जैसी फ़िल्म रिलीज़ हो गई?

एक रास्ता ये भी है कि बोर्ड में फिल्मों को लेकर निर्णायक फैसला लेने वाले अधिकारियो के खिलाफ़ इतनी सख्त कार्रवाई की जाए कि वो नज़ीर बन जाए। बोर्ड में बैठे अधिकारियों को अगर इतना भी ज्ञान नहीं है कि इस फिल्म से किसी की धार्मिक भावनाएं आहत हो सकती हैं तो उन्हें बोर्ड में अपनी सेवाएं देने का कोई हक़ नहीं। अगर वे जानबूझकर ऐसी फिल्मों को मंच दे रहे हैं तो ये और भी खतरनाक है। उनके खिलाफ़ तुरंत कठोर से कठोर कार्यवाई होनी चाहिए।

किसी के धैर्य की परीक्षा लेने की इजाज़त किसी को नहीं होनी चाहिए। आख़िर, चिंगारी का खेल बुरा होता है! 

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